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Uttar Pradesh News राजदंड की स्थापना के पीछे आखिर क्या है RSS-बीजेपी की मंशा?

 रिपोर्टर अत्रि कुमार यादव हमीरपुर उत्तर प्रदेश

सेंगोल (राजदंड) को लेकर एक बार फिर से पूरी राजनीति गरम हो गयी है. इस मामले में नेहरू तक को मोदी सरकार इस्तेमाल करने से बाज नहीं आ रही है. गृहमंत्री अमित शाह ने प्रेस कांफ्रेंस कर बाकायदा बताया कि कैसे ब्रिटिश हुकूमत द्वारा माउंटबेटन से नेहरू के हाथों सत्ता हस्तांतरण के समय राजदंड को एक प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया गया था, और प्रेस कांफ्रेंस के दौरान ही उनके पीछे पर्दे पर नाटकीय पात्रों को लेकर बनी एक फिल्म प्रदर्शित की जा रही थी, जिसमें नेहरू को सेंगोल सौंपते हुए दिखाया गया था. सामने देखने वालों के लिए यह बिल्कुल असली दृष्य लग सकता है, जबकि यह महज एक फिक्शन पर आधारित फिल्म है जिसमें नाटक के पात्रों का इस्तेमाल किया गया है. इतिहास में न तो इसके कोई प्रमाण मिलते हैं और न ही इस तरह की कोई घटना दस्तावेजों में दर्ज है. इस बात में कोई शक नहीं कि चोल राजवंश में यह एक प्रचलित प्रथा थी कि राजा के राज्यारोहण के समय राजपुरोहित राजदंड सौंपने के जरिये, उसे सिंहासन पर बैठाता था, और यह बात भी सच हो सकती है कि तमिलनाडु से पुजारियों का एक प्रतिनिधिमंडल आया हो और उसने व्यक्तिगत क्षमता में नेहरू को राजदंड सौंप दिया हो. लेकिन इसे कोई राजकीय कार्यक्रम का दर्जा नहीं दिया जा सकता है. अपने घर रहते हुए कोई पीएम अगर किसी से कुछ हासिल करता है तो उसे राजकीय दायरे में नहीं शामिल किया जा सकता है. यहां तक कि महात्मा गांधी के पोते और राजगोपालाचारी के नाती राजमोहन गांधी ने भी सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है.उन्होंने कहा कि  राजाजी के नाती और उनके जीवनीकार की हैसियत से मैं बताना चाहूंगा कि गृहमंत्री शाह की प्रेस कॉन्फ्रेंस की रिपोर्टें, मीडिया में आने से पहले तक इस सेंगोल की कहानी में राजाजी की इस कथित भूमिका के बारे में मैंने कभी कुछ सुना तक नहीं था. 1947 से आज तक न केवल मैंने, बल्कि बहुत सारे अन्य लोगों ने भी इस कहानी के बारे में कुछ भी नहीं सुना है, इसलिए सरकार को चाहिए नेहरू, माउंटबेटन और राजाजी के संबंध में, इस कहानी के बारे में सभी दस्तावेज़ों को जल्द से जल्द सार्वजनिक करे.” राजमोहन गांधी तो बाकायदा “राजाजी: ए लाइफ” नाम से उन पर एक किताब लिख चुके हैं, जिसको साहित्य अकादमी से पुरस्कार भी मिला है; लेकिन बीजेपी-RSS को न तो इतिहास से मतलब है और न ही किसी अथेंटिक दस्तावेज से. उसने तो ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी खोल रखी है, और अपने मुताबिक अपना इतिहास गढ़ती रहती है. अभी तक यह सिलसिला सिर्फ आईटी सेल और भक्तों तक सीमित था. लेकिन अब ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी को पहली बार इस तरह के एक राजकीय कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. राजदंड सिर्फ एक छड़ी भर नहीं है और न ही वह केवल एक प्रतीक है बल्कि इसके जरिये RSS-बीजेपी वह सब कुछ हासिल करना चाहते हैं जो अभी तक उनके ख्बावों और खयालों में पल रहा था. देश में तो बहुत राजे रजवाड़े हुए हैं और कहीं से भी कोई प्रतीक उठाया जा सकता था और उसकी कोई कहानी भी बनायी जा सकती थी; लेकिन दक्षिण के और वह भी तमिलनाडु के चोल वंश से अगर यह प्रतीक उठाया गया है, तो इसके गहरे निहितार्थ हैं.इस बात में कोई शक नहीं कि द्रविड़ियन विचार, संस्कृति और परंपरा का अगर कोई नेतृत्व करता है तो वह तमिलनाडु है. बाद के दौर में ब्राह्मणवादी संस्कृति और परंपरा से इसको निकालने का काम पेरियार ने किया. और इस तरह से सामाजिक न्याय पर आधारित एक समानांतर द्रविड़ संस्कृति और परंपरा का वहां विकास हुआ. ऐसे दौर में जबकि बीजेपी लगातार दक्षिण में घुसने का प्रयास कर रही है, लेकिन बार-बार की कोशिशों के बावजूद, इस काम में उसको अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है ऐसे में चोल वंश के राजाओं के इस प्रतीक के जरिये, उसे सामान्य तौर पर दक्षिण और खास तौर पर तमिलनाडु को एक संदेश देने का मौका मिला है. इस बात को हमें नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी-RSS का लक्ष्य देश को हिंदू राष्ट्र बनाना है; और इसमें किसी तरह के किसी साझी विरासत और साझी संस्कृति का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है. वह विशुद्ध रूप से एक वर्णव्यस्था पर आधारित ब्राह्मणवादी राज्य स्थापित करना चाहती है; जिसमें कुछ समझौते भले कर लिए जाएं लेकिन वर्णव्यवस्था का आर्डर और जातीय पहचानें कतई नहीं बदलने जा रही हैं. इस मामले में बौद्ध, जैन समेत हिंदू संप्रदाय के भीतर आने वाले दूसरे धर्मों को भी वह दोयम नजरिये से ही देखती है. अनायास नहीं, उसकी नजर में अशोक का शासन नहीं, बल्कि गुप्त वंश का काल इतिहास का सबसे महानतम दौर था, जिसे वह सोने की चिड़िया के तौर पर पेश करती रही है; और साम्राज्य के स्तर पर भी उसके सबसे बड़े होने की बात पर गौरवान्वित होती रही है. लेकिन जिस एक नजरिये से यह राज्य उसके आदर्शों पर खरा नहीं उतर पाता था वह था ब्रह्मणवादी व्यवस्था और और सवर्ण वर्चस्व! लिहाजा उसे एक ऐसे शासन सत्ता की जरूरत थी जो परंपरागत रूप से ब्राह्मणवादी शासन व्यवस्था के तहत संचालित होता रहा हो, जिसमें पुरोहिती और मंदिरों की सर्वोच्चता के साथ सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा रहा हो. इतना ही नहीं राज्य और शासन व्यवस्था बड़ी होने के साथ ही उसका विस्तार भी साम्राज्यवादी हो जो RSS के अपने विश्वगुरू के पैमाने पर बिल्कुल फिट बैठता हो. इस लिहाज से चोल वंश को उसने चुना है. चोल वंश न केवल ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर आधारित था, बल्कि 9वी से 13वीं सदी के अपने शासन के दौरान सबसे मजबूत भी था. और आस-पास के विभिन्न रजवाड़ों को जीतने के बाद, उसने श्रीलंका पर भी विजय हासिल की थी और एक समय तो उसका विस्तार थाईलैंड समेत उसके आस-पास के तमाम क्षेत्रों तक था. और ब्राह्मणवादी-सांस्कृतिक परंपरा में वह किसी भी उत्तर भारतीय व्यवस्था से कम नहीं था. वहां के पुरोहित काशी के ब्राह्मण थे, और काशी से उस साम्राज्य का सीधा रिश्ता बना हुआ था. जातीय और सामाजिक समूहों में ब्राह्मणों का स्थान इतना ऊंचा था कि राजा की हत्या करने पर भी हत्यारे ब्राह्मण को मृत्युदंड की सजा नहीं दी जा सकती थी! राज-राजा के भाई की जो चोल वंश के राजा थे, हत्या ब्राह्मणों ने कर दी थी, लेकिन बाद में राज-राजा जो चोलवंश के सबसे प्रतापी राजा थे और जिनके राज में शासन का सबसे ज्यादा विस्तार हुआ था, चाह कर भी दोषियों को मृत्युदंड नहीं दे सके, क्योंकि वो जाति से ब्राह्मण थे. उनके गुरु ने उनसे कहा कि ‘आप उनको सिर्फ उनकी संपत्ति से बेदखल कर सकते हैं.’ अंत में वही हुआ. उनकी और उनके रिश्तेदारों की संपत्ति को राज-राजा ने नीलाम करवा दिया और उन्हें काशी जाने के लिए मजबूर कर दिया. लिहाजा अभी तक प्रतीकों के तौर पर शासन और सत्ता में बौद्ध धर्म से जुड़े प्रतीकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है. बीजेपी उससे एक-एक कर छुटकारा पाना चाहती है. नई संसद उसके लिए एक मौका है; और सेंगोल के जरिये सत्ता के हस्तांतरण के कार्यक्रम का आयोजन कर, एक तरह से वह इस बात का संदेश भी देना चाहती है कि देश के जीवन में एक नये दौर की शुरुआत हो रही है! यह आजादी के बाद से आगे हिंदू राष्ट्र के निर्माण का दौर है, जिसका बीजेपी-आरएसएस 2014 से शुरुआत मानते हैं. अनायास नहीं कि नई संसद के उद्घाटन का कार्यक्रम हवन से किया जा रहा है. और उसमें बाकयदा 21 साधु संत हिस्सा लेंगे. कल जो नई संसद की भीतर की तस्वीरें सार्वजनिक की गयी हैं उसमें अशोक की लॉट और चक्र को छोड़ दिया जाए जिसको लेना सरकार की मजबूरी है, क्योंकि शासन सत्ता का वह प्रमुख सिंबल है, तो बाकी चीजों में जहां भी संभव हो सका, ‘ब्राह्मणवादी वैदिक परंपरा और संस्कृति से जुड़ी चीजों को स्थापित करने की कोशिश” की गयी है. बताया जा रहा है कि दीवारों पर वैदिक श्लोक लिखे गए हैं. राष्ट्रपति का इस कार्यक्रम में न बुलाया जाना, जितना मोदी के “अहं ब्रम्हाष्मि” से जुड़ा है, उससे ज्यादा इस तरह के किसी पवित्र वैदिक सांस्कृतिक कार्यक्रम में किसी आदिवासी या फिर दलित समुदाय से आने वाले शख्स को शामिल न होने देना, उसकी जरूरत बन जाती है. अनायास नहीं कि इसके पहले के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को न तो राम जन्मभूमि और न ही संसद के शिलान्यास कार्यक्रम में बुलाया गया; जबकि एक संवैधानिक पद पर रहते संसद के शिलान्यास में उनकी प्राथमिक भूमिका थी. दरअसल वह भी दलित समुदाय से आते थे और ब्राह्मणवादी व्यवस्था में एक दलित के हाथों पूजा-पाठ और उद्घाटन कराने का मतलब- पूरी ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था को ही किनारे कर देना! लिहाजा वोट के तौर पर वो कितने ही उपयोगी हों, लेकिन बीजेपी के “नये हिंदू और सांस्कृतिक राष्ट्र” में उनकी कोई उपयोगिता नहीं है. बल्कि वो उनके लिए अपने किस्म के विघ्नकेशी हैं. (महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं)

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