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Maharashtra News मोहर्रम का ऐतिहासिक महत्व, जानें क्यों निकाले जाते हैं ताजिये और पिलाए जाता है शरबत

रिपोर्टर गुलजार शेख कल्याण महाराष्ट्र

कल्याण :- यौम-ए-आशूरा यानि मोहर्रम के 10वें दिन को माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार करीब 1400 साल पहले मुहर्रम के 10वें दिन पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। कर्बला की जंग में उन्होंने इस्लाम की रक्षा के लिए अपने परिवार और 72 साथियों के सा​थ शहादत दी। यह जंग इराक के कर्बला में यजीद की सेना और हजरत इमाम हुसैन के बीच हुई थी। माना जाता है ये हक और बातिल की जंग थी।

कर्बला के मैदान में शहीद हो गये थे हजरत इमाम हुसैन

इस्लाम धर्म की मान्यता के मुताबिक, हजरत इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ मोहर्रम माह के 10वें दिन कर्बला के मैदान में शहीद हो गये थे। उनकी शहादत और कुर्बानी के तौर पर इस दिन को याद किया जाता है। कहा जाता है कि इस्लाम के पांचवे खलीफा हजरत मुआविया के बेटा यजीद वंशानुगत आधार पर खलीफा बना। यजीद चाहता था कि हजरत अली के बेटे इमाम हुसैन भी उसके खेमे में शामिल हो जाएं। हालांकि इमाम हुसैन को यह मंजूर न था। उन्होंने यजीद को मना कर दिया था। क्यों के यजीद शराबी , बलात्कारी और गरीबों पे जुल्म करता था। तो यजीद ने जंग का ऐलान कर दिया। इस जंग में इमाम हुसैन अपने बेटे, घरवाले और अन्य साथियों के साथ शहीद हो गये।युद्ध के दौरान 6 माह के अली असगर भी प्यास से शहीद हुवे

युद्ध के दौरान एक वक्त ऐसा भी आया तब सिर्फ इमाम हुसैन अकेले रह गये, लेकिन तभी अचानक उनके खेमे में शोर सुनाई दिया। उनका छह महीने का बेटा अली असगर प्यास से बेहाल था। हुसैन उसे हाथों में उठाकर मैदान-ए-कर्बला में ले आये। उन्होंने यजीद की फौज से बेटे को पानी पिलाने के लिए कहा, लेकिन फौज नहीं मानी और यजीद का सिपाई हुर्मला नाम का जिसने अली असगर के गले पे तीर मार दिया बेटे ने हुसैन के हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। इसके बाद भूखे-प्यासे हजरत इमाम हुसैन का भी कत्ल कर दिया। इसलिए इसे आशुर यानी गम का दिन भी कहा जाता है। इराक की राजधानी बगदाद के दक्षिण पश्चिम के कर्बला में इमाम हुसैन और हजरत अब्बास के तीर्थ स्थल हैं।

हजरत मुहम्मद साहब के नवासे थे हजरत इमाम हुसैन

हजरत इमाम हुसैन पैगंबर मोहम्मद के नवासे थे। इमाम हुसैन के वालिद यानी पिता का नाम हजरत अली था, जो कि पैगंबर साहब के दामाद थे। इमाम हुसैन की मां बीबी फातिमा थीं। हजरत अली मुसलमानों के धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक मुखिया थे। उन्हें खलीफा बनाया गया था। कहा जाता है कि हजरत अली की हत्या के बाद लोगो ने इमाम हसन को खलीफा बनाया था। फिर इमाम हसन के बाद हजरत अमीर मुआविया ने खिलाफत संभाल लिया। लेकिन हजरत मुआविया के बाद उनके बेटे यजीद ने खिलाफत अपना ली। यजीद कुफ्र फासिक था। उसे इमाम हुसैन का डर था। यजीद के खिलाफ इमाम हुसैन ने हक और इस्लाम के लिए कर्बला में जंग हुई और शहीद हो गए।

मुसलमान रोजा-नमाज के साथ तो हिंदू समुदाय भी अकीदत के साथ ताजियों निकलते है

इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार करीब 1400 साल पहले आशूरा के दिन कर्बला की लड़ाई में इमाम हुसैन का सिर कलम कर दिया गया था। तभी से उनकी याद में इस दिन जुलूस और ताजिया निकालने की रिवायत है। हिंदुस्तान में उत्तर परदेश में कही साल से और महाराष्ट्र के सांगली में 150 साल से ब्राह्मण हिंदू समुदाय भी ताजिया निकलते है। इस साल भी ताबूत 200 250 फिट ऊंचा इमाम हुसैन की याद में निकले है। सांगली में ताबूत देखने उत्तर परदेश, गुजरात और महाराष्ट्र से लोग आते है। अशुरा के दिन तैमूरी रिवायत को मानने वाले मुसलमान रोजा-नमाज के साथ इस दिन ताजियों को दफन या ठंडा कर शोक मनाते हैं। मुहर्रम की दसवीं तारीख को यौम-ए-आशूरा मनाया जाता है। मोहर्रम की शुरुआत इस साल 20 जुलाई से हुई थी। ऐसे में आशूरा 29 जुलाई को मनाया गया।

सुन्नी समुदाय के लोग 10 दिन तकरीर रखते और शरबत नियाज़ अकीदत से बाते है

आशूरा के दिन सुन्नी समुदाय के लोग बहुत अहम दिन और पवित्र दिन मानते है। हदीस के मुताबिक इस दिन बहुत से पैगंबरों की दुआ कुबूल हुई और एक पैगंबर मछली के पेट से निकाले गए। कहा ये भी जाता है के इस ही दिन 10 मुहर्रम को ही कयामत आएंगी याने दुनिया खतम हो जाएंगी। हदीस में इस दिन के बारे में और भी बहुत से बातए आई है।सुन्नी समुदाय के लोग 10 दिन मस्जिद में तकरीर करते, इमाम हुसैन और उनकी साथ शहीद हुए साथ्यो की शहादत का वाकिया बताते। लोगो को आपस में भाई चारा और अमन कायम करनी की शिक्षा देते। बुरे काम जूवा शराब जुल्म ऐसी कामों से दूर रहने की नसियात देते।शरबत पिलाते खिचड़ा बना के सबको खिलाते।

शिया समुदाय के लोग निकालते हैं ताजिया

आशूरा के दिन शिया समुदाय के लोग ताजिया निकालते हैं और मातम करते हैं। इराक में हजरत इमाम हुसैन का मकबरा है, उसी मकबरे की तरह का ताजिया बनाया जाता है और जुलूस निकाला जाता है। आशूरा इस्लाम धर्म का कोई त्योहार नहीं बल्कि शोक का दिन माना जाता है, जिसमें शिया मुस्लिम दस दिन तक इमाम हुसैन की याद में मातम कर के शोक मनाते हैं। मुहर्रम का महीना इस्लाम धर्म में शोक के रूप में जाना जाता है। इस महीने में उत्सव नहीं होता है। इमाम हुसैन की शहादत पर शोक व्यक्त करते हुए शिया मुस्लिम काले कपड़े पहनकर जुलूस निकालते हैं। इस दिन को कुर्बानी के रूप में याद किया जाता है, साथ ही इस दिन ताबूत ताजिया निकाले जाते हैं।

इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है मोहर्रम

मोहर्रम का महीना इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है। यह महीना इस्लाम धर्म में शिया और सुन्नी मुस्लिम समुदाय के लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम इस साल 20 जुलाई 2023, गुरुवार से शुरू हो गया था। वहीं 29 जुलाई को जो के मुहर्रम की 10वीं तारीख यौम-ए-आशूरा के नाम से जानी जाती है। यह इस्लाम का प्रमुख दिन है। आशूरा शोक का दिन होता है। इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग पवित्र और अकीदत से मनाता है।

तैमूर ने पहली बार किया था ताजिया का निर्माण

एशिया और हिंदुस्तान में ताजियादारी या ताजिया रखने का इतिहास तैमूर के काल से जुड़ा है, जिसने 1398 ईस्वी में भारत पर आक्रमण किया था। कर्बला की तीर्थयात्रा से समरकंद लौटने पर तैमूर ने पहली बार ताज़िया का निर्माण किया। मूल रूप से ताज़िया इमाम हुसैन के मकबरे की प्रतिकृति है, और कई रूपों और आकारों में बनाई जाती है। ताज़िया शब्द अरबी शब्द अज़ा से लिया गया है जिसका अर्थ है मृतकों का स्मरण करना।

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